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शीतल धरा और शीतल गगन है
कड़ाके की सरदी में, ठिठुरा बदन है
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उड़ाते हैं आँचल, हवा के झकोरे,
काँटों की गोदी में, पलता सुमन है
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मिली गन्ध मधु की, चले आये भँवरे
मेरी बेबसी देख, हँसता चमन है
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परेशान नदियाँ है, नालों के डर से.
करने को दूभर हुआ आचमन है
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भरी 'रूप' में आज कितनी मिलावट
झूठी खुशी दे रही अंजुमन है
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शनिवार, 14 दिसंबर 2019
ग़ज़ल "ठिठुरा बदन है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(१५ -१२ -२०१९ ) को "जलने लगे अलाव "(चर्चा अंक-३५५०) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी