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ये पात-पात निकले, वो डाल-डाल निकले
मुर्दार बस्तियों में, करने बवाल निकले
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परदेशियों के आगे, घुटने वो टेकते हैं, ईमान के शिकारी, गठरी खँगाल निकले -- निर्धन का जो अभी तक, दामन भी सिल न पाये
शतरंज के खिलाड़ी, चलने को चाल निकले
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लोगों की गर्दनों पर, खंजर चला रहे हैं सपने हसीं दिखाकर, करने कमाल निकले
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सीमा पे अपने सैनिक, दिन-रात मर रहे हैं
कायर बने हुए से, करने मलाल निकले
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वोटों के ये भिखारी, दर-दर भटक रहे हैं
अपनों के वास्ते ही, बुनने को जाल निकले। --
है नाम भी सुरीला और "रूप" सन्त का सा
मीठी छुरी से सबको, करने हलाल निकले।
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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019
ग़ज़ल "करने बवाल निकले" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०६-१२-२०१९ ) को "पुलिस एनकाउंटर ?"(चर्चा अंक-३५४२) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी