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शनिवार, 28 दिसंबर 2019
गीत "गौरय्या का गाँव" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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दबा सुरीला कोयल का सुर,
जवाब देंहटाएंअब कागा की काँव में।
दम घुटता है आज चमन की,
ठण्डी-ठण्डी छाँव में।।
सच तो यह भी है कि अब कागा की काँव-काँव भी बमुश्किल सुनाई देती है
खोज रहे हैं शीतल छाया,
कंकरीट की ठाँव में।
दम घुटता है आज चमन की,
ठण्डी-ठण्डी छाँव में।।
सच कंक्रीट के घरों में दिल भी उसी जैसा हो गया है
बदलते परिवेश की कसक कलम की छटपटाहट बोल ही देती हैं
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२९-१२ -२०१९ ) को " नूतनवर्षाभिनन्दन" (चर्चा अंक-३५६४) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
**
अनीता सैनी
बहुत सुंदर रचना आदरणीय
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(०७ -०९-२०२१) को
'गौरय्या का गाँव'(चर्चा अंक- ४१८०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सच्चाई बयाँ करती सुंदर सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंहमने पता नहीं, जाने-अनजाने कितने जीवों का जीवन दुष्कर कर दिया है !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर मधुर गीत | इसे बार बार गाकर पढने को मन करेगा | बहुत सुन्दर सरस |
जवाब देंहटाएंसच कहा । कैसा दमघोंटू दौर में जी रहे हैं हम ।
जवाब देंहटाएंयथार्थ सुंदर!
जवाब देंहटाएंसरलता से आज के सत्य को कहती सुंदर रचना।
सच्चाई को बयां करती बहुत ही खूबसूरत रचना!
जवाब देंहटाएं