कटी है उम्र गीतों में, मगर लिखना नहीं आया तभी तो हाट में उनको, अभी बिकना नहीं आया ज़माने में फकीरों का, नहीं होता ठिकाना कुछ उन्हें तो एक डाली पर, कभी टिकना नहीं आया सम्भाला होश है जबसे, रहे वो मस्त फाकों में लगें किस पेड़ पर रोटी, हुनर उनको नहीं आया मिला ओहदा बहुत ऊँचा, मगर किरदार हैं गिरवीं तभी तो देश की ख़ातिर, उन्हें मिटना नहीं आया नहीं पहचान पाये "रूप", जो अब तक दरिन्दों का पहाड़ा देशभक्ति का, उन्हें गिनना नहीं आया |
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गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022
ग़ज़ल "नहीं पहचान पाये रूप" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुंदर ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (१८-०२ -२०२२ ) को
'भाग्य'(चर्चा अंक-४३४४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मिला ओहदा बहुत ऊँचा, मगर किरदार हैं गिरवीं
जवाब देंहटाएंतभी तो देश की ख़ातिर, उन्हें मिटना नहीं आया
वाह क्या बात कही लाजवाब....
वाह!बेहतरीन!
जवाब देंहटाएंउम्दा अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसच को उजागर करती
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार गज़ल
सादर