छिपा क्षितिज में सूरज राजा,
ओढ़ कुहासे की चादर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
कुदरत के हैं अजब नजारे,
शैल ढके हैं हिम से सारे,
दुबके हुए नीड़ में पंछी,
हवा चल रही सर-सर-सर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
कोट पहनकर, छोड़ रजाई,
दादा जी ने आग जलाई,
मिल जाती गर्मी अलाव से,
लकड़ी पाना है दूभर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
टॉम-फिरंगी प्यारे-प्यारे,
सिकुड़े बैठे हैं बेचारे,
तन को गर्मी पहुँचाने को,
भाग रहे हैं इधर-उधर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
मिलते नहीं कहीं अब कण्डे,
बिना गैस के चूल्हे ठण्डे,
महँगाई की मार पड़ी है,
जीवन जीना है दूभर।
सर्दी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013
"कुहासे की चादर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंसच में, बदन काँपता थर थर थर थर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएं:-)
बहुत सुन्दर......बदन काँपता थर थर थर थर.....
जवाब देंहटाएंthand ka ahsas dilati sundar rachna ..
जवाब देंहटाएंमिलते नहीं कहीं अब कण्डे,
बिना गैस के चूल्हे ठण्डे,
महँगाई की मार पड़ी है,
जीवन जीना है दूभर।
सर्दी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
अग्निदेव की शरण में आना ही पड़ता है...मंहगाई की गर्मी ने सारी ठण्ड भुला दी...
जवाब देंहटाएंनभ में काले बादल छाये!
जवाब देंहटाएंछम-छम बून्दें पड़ती जल की,
कल-कल करती नभ से ढलकी,
जग की प्यास बुझाने आये!
नभ में काले बादल छाये!
सुन्दर बाल गीत सहज सुबोध बाल शैली
मौसम की मिज़ाज़ पुरसी करता बेहतरीन गीत।
बहुत सुन्दर और सार्थक गीत....
जवाब देंहटाएं