ये टोपी है बलिदान की, ये टोपी
हिन्दुस्तान की।
ये तेरी भी, ये
मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
भेद नहीं है जाति-धर्म का, देती
है आदेश कर्म का,
अपनी टोपी धारण करना, काम
नहीं है लाज-शर्म का,
ये प्रतीक का चिह्न हमारे, स्वाभिमान-सम्मान
की।
ये तेरी भी, ये
मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
जिसने इस सीधी-सादी, अपनी टोपी को अपनाया,
उसने ही अपने समाज में, ऊँचे पद को है पाया,
टोपी से पहचान हमारे, भारत
के परिधान की।
ये तेरी भी, ये
मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
जैसे हिम के बिना अधूरी, लगती
कंचनजंघा है,
वैसे ही सिर टोपी के बिन, लगता
नंगा-नंगा है,
आन-बान है यही हमारे, प्यारे
देश महान की।
ये तेरी भी, ये
मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
सबसे न्यारी अपनी टोपी, संविधान की पोषक
है,
मानवता के लिए, हमारी निष्ठा की उद्घोषक है,
याद दिलाती हमको अपने, धर्म और ईमान की।
ये तेरी भी, ये मेरी भी,
ये मजदूर किसान की।। |
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सोमवार, 30 दिसंबर 2013
"टोपी हिन्दुस्तान की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सामयिक रचना! ये टोपी निदुस्तान की!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सफ़ेद भेड़ - काली भेड़ - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंये तेरी भी, ये मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ,सामयिक !
नई पोस्ट मिशन मून
नई पोस्ट ईशु का जन्म !
आम आदमी को अब तक सब टोपी पहना रहे थे...पहली बार आम आदमी ने नेताओं को टोपी पहनायी है...
जवाब देंहटाएंसार्थक अभिव्यक्ति .आपको नव वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएं .
जवाब देंहटाएंkya baat
जवाब देंहटाएंये टोपी है बलिदान की ,
जवाब देंहटाएंये तेरी भी ये मेरी भी ,
सबके कुल सम्मान की।
प्रस्तुति शाश्त्री जी की।