राह कठिन है, पथ दुर्गम है, तुम साथ क्या निभाओगे?
पथरीली राहों पर चलते-चलते, तुम थक जाओगे।।
मेरे साथ नही मस्ती है, विपदाओं से कुश्ती
है,
आँधी और तूफानों से, तुम निश्चित ही डर जाओगे।
तपन ग्रीष्म की, घन का गर्जन, बरसातों की बौछारें,
जाड़े की सिहरन-कम्पन को, देख-देख रुक जाओगे।
मैं उजड़ा-बिगड़ा गुलशन हूँ, तुम हो खिलता हुआ
चमन,
बाँह पकड़कर मरुथल की, तुम वीराना ही तो पाओगे।
तुम सुख में जीने वाले, मैं हूँ श्रम-साधक, मेहनतकश,
मोहनभोग छोड़कर, मेरे घर में तुम क्या खाओगे।
मैं श्यामल पूरबवाला, तुम पश्चिमवाले के मतवाले हो,
मेरे साथ-साथ चलकर, तुम अपना “रूप”
गँवाओगे।
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सोमवार, 2 दिसंबर 2013
"तुम साथ क्या निभाओगे?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक')
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nice post aabhar
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ....हमेशा की तरह
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर, स्पष्ट मन सी।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सौद्देश्य प्रस्तुति।
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