जो भी मन में हो, कह जाओ!
द्वार खुले हैं, आ भी जाओ!!
दूर-दूर रह कर, क्यों हल को खोज रहे हो,
मरुथल में जाकर, क्यों जल को खोज रहे हो,
गंगा तट पर प्यास
बुझाने,
गड़वा लेकर आ भी
जाओ।
द्वार खुले हैं, आ भी जाओ!!
छलनी के छेदों मे
तुम तो, केवल अवगुण देख रहे हो,
कूड़ा आँचल में
रखते हो, सार-सार को फेंक रहे हो,
खुलकर के मन-
सुमन मिलेंगे,
उपवन में अब आ भी
जाओ।
द्वार खुले हैं, आ भी जाओ!!
क्षमा-सरलता गुण
हैं, ये मानव के हैं आभूषण भी,
वायु करती
प्राण-प्रवाहित और भगाती है दूषण भी,
मत देखो पुतलों की काया,
जीवन भरने आ भी
जाओ!
द्वार खुले हैं, आ भी जाओ!!
|
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बुधवार, 18 दिसंबर 2013
"आ भी जाओ...!" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आप बुलायें और कोई ना आये ? :)
जवाब देंहटाएंकाव्य सौंदर्य से भरपूर रचना शैली माधुर्य देखते ही बनता है।
जवाब देंहटाएंकाव्य सौंदर्य से भरपूर रचना शैली माधुर्य देखते ही बनता है।
काव्य सौंदर्य से भरपूर रचना शैली माधुर्य देखते ही बनता है।
दूर-दूर रह कर, क्यों हल को खोज रहे हो,
मरुथल में जाकर, क्यों जल को खोज रहे हो,
गंगा तट पर प्यास बुझाने,
गड़वा लेकर आ भी जाओ।
द्वार खुले हैं, आ भी जाओ!!
जनपदीय शब्दों का सुन्दर प्रयोग किया है रचना में।
सारगर्भित...सटीक...
जवाब देंहटाएंहर जगह से घूमे के यहीं आयेंगे,
जवाब देंहटाएंनहीं आयेंगे तो कहाँ जायेंगे !!!!
वाह क्या बात है, द्वार खुले हैं आ भी जाओ।
जवाब देंहटाएंकविता के भाव एवं काव्य सौंदर्य अप्रतिम है .शब्दों में आकर्षण है |
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट मेरे सपनों का रामराज्य (भाग १)
बहुत सुंदर भाव सुमन..
जवाब देंहटाएंवाह, सुन्दर भाव, मोहक रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव..बार-बार जाने का मन होगा यहां तो
जवाब देंहटाएं