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भाव सुप्त अब हो
गये, हुई शायरी बन्द।
नहीं निकलते कलम
से, नये-पुराने छन्द।।
अँधियारा छाने लगा,
गया भास्कर डूब।
लिखने-पढ़ने से
गया, मेरा मन अब ऊब।।
थकी हुई है लेखनी, सूखे कलम-दवात।
वृद्धावस्था में
नहीं, यौवन जैसी बात।।
मंजिल से पहले हुए,
डगमग दोनों पाँव।
जाने कितनी दूर है,
अभी पथिक का गाँव।।
असमंजस में आजकल,
समय रहा है बीत।
झूठा देते हौसला, सुख-दुख
के सब मीत।।
एक सहारा जगत में,
होता केवल ओम।
इदम् न मम् के मन्त्र
से, करता मानव होम।।
दुनिया का तो छोर
है, नहीं व्योम का अन्त।
अन्तरिक्ष में
घूमता, कालातीत बसन्त।।
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सोमवार, 14 अक्तूबर 2019
दोहे "कालातीत बसन्त" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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इतनी निराशा क्यों ?
जवाब देंहटाएंब्रह्मांड का कोई अंत नहीं है, भले ही कलम थका हुआ हो, अनुभव हमेशा एक गिलहरी की तरह सक्रिय होता है, दीपक तब भी जब वह अपने अंतिम कुछ सेकंड में होता है, दूसरे दीपक या तेल की खोज के लिए आवश्यक होता है इसके पुन: प्रज्वलन के लिए, ईमानदार कविता मयंक दा
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन है ,कुछ नैराश्य के भाव परिलक्षित हो रहे हैं, इतना ही कहना चाहूंगी आदरणीय...
जवाब देंहटाएंतरूणाई से अधिक जीवन के अनुभव तरूण हुआ करते हैं ।
नमन।
थकी हुई है लेखनी, सूखे कलम-दवात।
जवाब देंहटाएंवृद्धावस्था में नहीं, यौवन जैसी बात।।
आपकी बात सच है लेकिन यह भी सच है कि वृद्धावस्था अनुभव से भरे घर होते हैं
बहुत अच्छी प्रस्तुति