कभी न देखा
पीछे मुड़कर, कभी न देखा
लेखा-जोखा। कॉपी-कलम छोड़
कर खुद को, आभासी दुनिया में
झोका।। इस सामाजिक जग
में मुझको, सबने हाथों-हाथ
लिया है। मेरे मामूली
शब्दों को, सबने अपना
प्यार दिया है। जाने कैसे
रचनाओं पर, अब तक रंग चढ़ा
है चोखा। कॉपी-कलम छोड़
कर खुद को, आभासी दुनिया में
झोका।। आई कहाँ से
किरण सुनहरी, किसने दीपक को
दमकाया? कलियाँ सुमन बन
गयी कैसे, किसने उपवन को
महकाया? मेरी छोटी सी
कुटिया में, ना खिड़की ना
कोई झरोखा। कॉपी-कलम छोड़
कर खुद को, आभासी दुनिया में
झोका।। शब्दों की
पहचान नहीं है, गीत-गज़ल का
ज्ञान नहीं है। मातु शारदे
रचना रचतीं, मुझमें छन्द
विधान नहीं है। कैसे 'रूप' निखारूँ अपना, मैं दुनिया का
जन्तु अनोखा। कॉपी-कलम छोड़
कर खुद को, आभासी दुनिया में झोका।। |
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शनिवार, 8 जनवरी 2022
गीत "खुद को आभासी दुनिया में झोका" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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चरैवेती चरैवेती
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलरविवार (9-1-22) को "वो अमृता... जिसे हम अंडरएस्टीमेट करते रहे"'(चर्चा अंक-4304)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
वाह !
जवाब देंहटाएंआपको अपना कवि-रूप निखारने की क्या आवश्यता है?
आपकी कविता में निखार भी है, भाव-पक्ष और काव्य-पक्ष की सुन्दरता भी है और सबसे अच्छी बात कि उसमें सदाशयता के साथ-साथ सहजता भी है.
आदरणीय सर, नमस्ते👏! आप मेरे प्रेरणास्रोत हैं।
जवाब देंहटाएंआपने नवांकुरों की भावना को भी इन पंक्तियों में स्वर दिया है।
शब्दों की पहचान नहीं है,
गीत-गज़ल का ज्ञान नहीं है।
मातु शारदे रचना रचतीं,
मुझमें छन्द विधान नहीं है।
कैसे 'रूप' निखारूँ अपना,
मैं दुनिया का जन्तु अनोखा।
अति उत्तम !सादर साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
स्वयं के लिए आकिंचन्य के भाव कवि को सहज ही ऊंचाईयों को लेजाता है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।
आआपकि अनोखी शैली ही आपको खींचती है सर । अंदर भाव के साथ प्रस्तुत आपकी ये कवि मन लिए पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंसादर