-- शब्दों से कुश्ती करने का, दाँव-पेंच हो जाता है। स्याही नहीं लेखनी में अब, खून उतरकर आता है।। -- पहले से अनुमान लगाकर, नहीं नियोजन करता हूँ, मैं अपने लेखन से प्रतिदिन, कुछ पन्नों को भरता हूँ, जैसे एक नशेड़ी पथ पर, अपने कदम बढ़ाता है। स्याही नहीं लेखनी में अब, खून उतरकर आता है।। -- कोयल ने जब कुहुक भरी तो, मन ही मन मुस्काता हूँ, जब काँटे चुभते पाँवों में, थोड़ा सा सुस्ताता हूँ, सुख-दुख के ताने-बाने का, अनुभव मुझे सताता है। स्याही नहीं लेखनी में अब, खून उतरकर आता है।। -- कैसे तन और मन हो निर्मल, मैली गंगा की धारा, कंकरीट की देख फसल को, कृषक बन गया बे-चारा, धरा-धाम और जल-जीवन से, मेरा भी तो नाता है। स्याही नहीं लेखनी में अब, खून उतरकर आता है।। -- लज्जा लुटती देख नारि की, कैसे चुप हो जाऊँ मैं, हालत देख किसानों की, कैसे गुमसुम हो जाऊँ मैं, मातृमूमि से गद्दारी को, सहन न मन कर पाता है। स्याही नहीं लेखनी में अब, खून उतरकर आता है।। -- |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
शुक्रवार, 21 जनवरी 2022
गीत "कैसे गुमसुम हो जाऊँ मैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
-
सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
एक संवेदनशील साहित्यकार समाज में हो रहे अन्याय को देखकर चुप कैसे रह सकता है
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२२-०१ -२०२२ ) को
'वक्त बदलते हैं , हालात बदलते हैं !'(चर्चा अंक-४३१३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
लज्जा लुटती देख नारि की,
जवाब देंहटाएंकैसे चुप हो जाऊँ मैं,
हालत देख किसानों की,
कैसे गुमसुम हो जाऊँ मैं,
मातृमूमि से गद्दारी को,
सहन न मन कर पाता है।
स्याही नहीं लेखनी में अब,
खून उतरकर आता है।।
एक सच्चा और संवेदनशील साहित्यकार कभी भी ऐसे मुद्दों पर चुप्पी नहीं साध सकता! वह हर ऐसे मुद्दे पर खुलकर बोलता ही है !
बहुत ही उम्दा सृजन...
इस बेहतरीन सृजन के लिए आभार🙏
नमन् 🙏
बहुत ही सुन्दर सार्थक रचना आदरणीय 🙏🙏
जवाब देंहटाएंमान्यवर, अपनी लेखनी को विश्राम मत दीजिए.
जवाब देंहटाएंजन-जागृति के लिए आपकी कलम की सेवाएँ आवश्यक हैं.
कैसे तन और मन हो निर्मल,
जवाब देंहटाएंमैली गंगा की धारा,
कंकरीट की देख फसल को,
कृषक बन गया बे-चारा,
धरा-धाम और जल-जीवन से,
मेरा भी तो नाता है।
स्याही नहीं लेखनी में अब,
खून उतरकर आता है।।
सुन्दर अभिव्यक्ति आदरणीय ।
सार्थक अभिव्यक्ति आ0
जवाब देंहटाएं