चल रहीं शीतल हवाएँ, धुँधलका बढ़ने लगा। कुहासे का आवरण, आकाश पर चढ़ने लगा।। हाथ
ठिठुरे-पाँव ठिठुरे, काँपता आँगन-सदन, कोट,चस्टर
और कम्बल से, ढके सबके बदन, आग
का गोला गगन में, पस्त सा पड़ने लगा। चल
रहीं शीतल हवाएँ, धुँधलका बढ़ने लगा।। सर्द
मौसम को समेटे, जागता परिवेश है, श्वेत
चादर को लपेटे, झाँकता राकेश है, तुहिन-हिम
नभ से अचानक, धरा पर झड़ने लगा। चल
रहीं शीतल हवाएँ, धुँधलका बढ़ने लगा।। आगमन
ऋतुराज का, लगता बहुत ही दूर है, अभी
तो हेमन्त यौवन से, भरा भरपूर है, मकर
का सूरज, नये सन्देश कुछ गढ़ने लगा। चल
रहीं शीतल हवाएँ, धुँधलका बढ़ने लगा।। |
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शनिवार, 29 जनवरी 2022
गीत "तुहिन-हिम नभ से अचानक धरा पर झड़ने लगा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
हेमन्त ऋतु का सुंदर वर्णन
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-1-22) को "भावनाएँ मेरी अब प्रवासी हुईं" (चर्चा अंक 4326)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
आदरणीय सर, नमस्ते👏!आपकी हेमंत ऋतु का वर्णन करती रचना में शब्द विन्यास और समायोजन बहुत कुछ सीखने को प्रेरित करता है। हार्दिक साधुवाद!--
जवाब देंहटाएंआगमन ऋतुराज का, लगता बहुत ही दूर है,
जवाब देंहटाएंअभी तो हेमन्त यौवन से, भरा भरपूर है... वाह!लाज़वाब सृजन सर।
सादर प्रणाम
बहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट शिल्प एवं कृति।
जवाब देंहटाएंअति सुंदर वर्णन हेमंत ऐसे ही आता रहे और हम आपकी रचनाओं को पढ़ आल्हादित होते रहें...प्रणाम शास्त्री जी ...बहुत ख्ाूब लिखा कि ''तुहिन-हिम नभ से अचानक, धरा पर झड़ने लगा।
जवाब देंहटाएंचल रहीं शीतल हवाएँ, धुँधलका बढ़ने लगा।।''
हेमंत ऋतु के खत्म होने पर वसंत ऋतुराज आएगा, इसी आशा में हेमंत भी कट जाता है। बहुत सुंदर चित्रण। सादर प्रणाम।
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