ज़िन्दग़ी में बड़े झमेले हैं घर हमारे बने तबेले हैं तन्त्र से लोक का नहीं नाता हर जगह दासता के मेले हैं बीन कचरा बड़ा हुआ बचपन नौनिहाल खींच रहे ठेले हैं सिर्फ चमचों को रोज़गार यहाँ शिक्षितों के लिए अधेले हैं अब विरासत में सियासत बाकी आम-जन आज भी अकेले हैं फिर से देखो चुनावी दंगल में बाहुबलियों ने डण्ड पेले हैं नगमगी "रूप" और धन बल से ख़ानदानों ने दाँव खेलें हैं |
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शुक्रवार, 28 जनवरी 2022
ग़ज़ल "ख़ानदानों ने दाँव खेलें हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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सामयिक और सटीक चित्रण किया है आपने । आपको मेरी हार्दिक शुभकामनाएं आदरणीय सर 👏👏
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२९-०१ -२०२२ ) को
'एक सूर्य उग आए ऐसा'(चर्चा-अंक -४३२५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
वर्तमान हालातों का यथार्थवादी चित्रण
जवाब देंहटाएंएकदम सटीक बात कही आपने आदरणीय🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और सटीक अभिव्यक्ति।
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