चली उत्तराखण्ड में, निर्वाचनी
बयार। धामी के नेतृत्व में, युवा हुए
तैयार।। अलग-थलग सब पड़ गये, झाड़ू हाथी
हाथ। जाने को तत्पर हुए, लोग कमल के
साथ।। पाँच बरस देखा जिसे, परखा
चित्त-चरित्र। समझ गई थी भाजपा, धोखे वाला मित्र।। मुखिया जी के हाथ से, डोर रही है
छूट। व्यथा आज किससे कहें, कुनबे में
है फूट।। रावत-रावत फिर मिले, मतलब करने
सिद्ध। मतदाता को लीलने, बनकर आये
गिद्ध।। माता बेटी-पुत्र के, कब्जे में
अधिकार। इन तीनों ने कर दिया, दल का बण्टाधार।। काँगरेस में हो गया, अब नेतृत्व अभाव। लोकतन्त्र के सिन्धु से, पार न
होगी नाव।। |
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सोमवार, 24 जनवरी 2022
दोहे "निर्वाचनी बयार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-1-22) को " अजन्मा एक गीत"(चर्चा अंक 4321)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
समसामयिक घटनाचक्र पर सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रेरक सामयिक रचना
जवाब देंहटाएंराज्नीति का खेल सबसे निराला
सटीक सामायिक दृश्य उत्पन्न करते सुंदर दोहे।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन दोहे।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब उधेड़ा है आ. मयंक जी!
जवाब देंहटाएं