कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।। तितली सुन्दर पंख हिलाती, भँवरे गुंजन करते हैं, खेतों में लहराते बिरुए, जीवन में रस भरते हैं, उपवन की फुलवारी लगती कंचन का गलियारा है। कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।। बीन-बीनकर तिनके लाते, चिड़िया और कबूतर भी, बड़े जतन से नीड़ बनाते, बया-चील और तीतर भी, जंगल में टेसू का पादप, बना हुआ अंगारा है। कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।। अंगूरों के गुच्छे लटके, फिर आँगन की बेलों में, सुर्ख रंग के फूल खिले हैं, फिर बगिया के केलों में, इठलाती-बलखाती फिर से, बहती निर्मल धारा हैं। कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।। प्रणय दिवस का भूत चढ़ा है, यौवन की अँगड़ाई में, छल-फरेब का चलन बढ़ा है, पूरब की पुरवाई में, रस के लोभी पागल मधुकर, घूम रहे आवारा हैं। कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।। |
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शनिवार, 13 फ़रवरी 2021
गीत "पागल मधुकर घूम रहे आवारा हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह... आदरणीय डॉ 'मयंक' जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर श्रृंगार रस में सराबोर मधुर गीत।
साधुवाद 🙏
सादर,
डॉ वर्षा सिंह
वाह
जवाब देंहटाएंमनभावन सुंदर गीत
सुन्दर व प्राणवंत सृजन - - साधुवाद सह।
जवाब देंहटाएं