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सोमवार, 15 फ़रवरी 2021
कविता "माता का करता हूँ वन्दन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-2-21) को "माता का करता हूँ वन्दन"(चर्चा अंक-3979) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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कामिनी सिन्हा
माता सरस्वती के चरणों में नतमस्तक हूं...
जवाब देंहटाएंआदरणीय शास्त्री जी,
वसंतपंचमी एवं सरस्वती पूजन की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
बहुत सुंदर रचना प्रस्तुति है..। बहत बधाई !
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
माँ सरस्वती का मान गुणगान करती सुन्दर रचना ...
जवाब देंहटाएंवाह वाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
सादर
..माँ सरस्वती को समर्पित सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंआदरणीय / प्रिय,
जवाब देंहटाएंकृपया इस लिंक पर पधारें... इसमें आपके दोहे भी शामिल हैं। धन्यवाद 🙏
दोहाकारों की दृष्टि में वसंत
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर।