उस पर मैं कलम चलाऊँगा। दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं, आगे को बढ़ता जाऊँगा।। -- मैं कभी वक्र होकर घूमूँ, हो जाऊँ सरल-सपाट कहीं। मैं स्वतन्त्र हूँ, मैं स्वछन्द हूँ, मैं कोई चारण भाट नहीं। फरमाइश पर नहीं लिखूँगा, गीत न जबरन गाऊँगा। दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं, आगे को बढ़ता जाऊँगा।। -- भावों की अविरल धारा में, मैं डुबकी खूब लगाऊँगा। शब्दों की पतवार थाम, मैं नौका पार लगाऊँगा। घूम-घूम कर सत्य-अहिंसा की मैं अलख जगाऊँगा। दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं, आगे बढ़ता जाऊँगा।। -- चाहे काँटों की शय्या हो, या नर्म-नर्म हो सेज सजे। सारंगी का गुंजन सुनकर, चाहे ढोलक-मृदंग बजे। अत्याचारी के दमन हेतु, शिव का डमरू बन जाऊँगा। दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं, आगे बढ़ता जाऊँगा।। -- |
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सोमवार, 22 फ़रवरी 2021
गीत "सत्य-अहिंसा की मैं अलख जगाऊँगा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह , बहुत प्रेरक गीत ।
जवाब देंहटाएं--
जवाब देंहटाएंचाहे काँटों की शय्या हो,
या नर्म-नर्म हो सेज सजे।
सारंगी का गुंजन सुनकर,
चाहे ढोलक-मृदंग बजे।
अत्याचारी के दमन हेतु,
शिव का डमरू बन जाऊँगा।
दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं,
आगे बढ़ता जाऊँगा।।..सुन्दर सारगर्भित संदेश भरी रचना..
अत्याचारी के दमन हेतु,
जवाब देंहटाएंशिव का डमरू बन जाऊँगा।
दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं,
आगे बढ़ता जाऊँगा।।
हृदयग्राही गीत...
साधुवाद आदरणीय 🙏
प्रेरणादायक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंअत्यन्त प्रेरक एवं प्रभावशाली गीत । अभिनंदन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीत आदरणीय! स्वांत सुखांत जग हिताय लिखने का सुंदर आह्वान।
जवाब देंहटाएंबहुत ओजमई रचना।
चाहे काँटों की शय्या हो,
जवाब देंहटाएंया नर्म-नर्म हो सेज सजे।
सारंगी का गुंजन सुनकर,
चाहे ढोलक-मृदंग बजे।
अत्याचारी के दमन हेतु,
शिव का डमरू बन जाऊँगा।
मार्गदर्शक की भांति प्रेरणादाई रचना।
सादर नमन।