काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- पथ में जो मिला मुझे, मैं उसी का हो गया। स्वप्न के वितान में, मन नयन में खो गया। शूल की धसान में, फूल छाँटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- चेतना के गाँव में, चेतना तो सो गयी। अन्धकार छा गया, सुबह से शाम हो गयी, और मैं मकान में, गूल पाटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- रत्न खोजने चला हूँ, पर्वतों के देश में। अभी तो कुछ मिला नहीं, पत्थरों के वेश में। किन्तु ख़ानदान में, उसूल बाँटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- चन्द्रिका ‘मयंक’ की, तन-बदन जला रही। कुटिलग्रहों की चाल अब, कुचक्र को चला रही। और मैं मचान की, झूल काटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- |
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सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 05-02-2021) को
"समय भूमिका लिखता है ख़ुद," (चर्चा अंक- 3968) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंआपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
बहुत सुंदर गीत आदरणीय
जवाब देंहटाएंरत्न खोजने चला हूँ, पर्वतों के देश में।
जवाब देंहटाएंअभी तो कुछ मिला नहीं, पत्थरों के वेश में।
किन्तु ख़ानदान में, उसूल बाँटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
लाजवाब...
पथ में जो मिला मुझे, मैं उसी का हो गया।
जवाब देंहटाएंस्वप्न के वितान में, मन नयन में खो गया।
बहुत खूब,सादर नमन सर