पेट नहीं भरता नारों से
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सूरज-चन्दा में उजास है
काम नहीं चलता तारों से
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आम आदमी ऊब गया है
आज दोगले किरदारों से
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दरिया पार नहीं होता है
टूटी-फूटी पतवारों से
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कोरोना की बीमारी में
रौनक गायब बाजारों से
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ईँधन पर महँगाई क्यों है
लोग पूछते सरकारों से
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जनसेवक मनमानी करते
वंचित जनता अधिकारों से
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नहीं पिघलता दिल दुनिया का
मजदूरों की मनुहारों से
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क्या होती है आग पेट की
कोई पूछे लाचारों से
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हरियाली अभिशाप बन गयी
फूल हो गये अंगारों से
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बदल गया क्यों 'रूप' वतन
का
पूछ रहे सब सरदारों से
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सोमवार, 29 जून 2020
ग़ज़ल "फूल हो गये अंगारों से" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत उत्तम ...
जवाब देंहटाएंहर शेर कमाल है ... दूर की बात सहज कहता हुआ ...
बहुत खूब शास्त्री जी, आपके ये दोहे हमारी थाती हैं...क्या होती है आग पेट की
जवाब देंहटाएंकोई पूछे लाचारों से
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हरियाली अभिशाप बन गयी
फूल हो गये अंगारों से...वाह
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-6-2020 ) को "नन्ही जन्नत"' (चर्चा अंक 3748) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
बहुत ही सुंदर ,एक एक दोहे मन को झकझोरता हुआ ,सादर नमन सर
जवाब देंहटाएंहरियाली अभिशाप बन गयी
जवाब देंहटाएंफूल हो गये अंगारों से.. वाह बेहतरीन रचना आदरणीय
उत्कृष्ट सृजन सुंदर भाव आदरणीय।
जवाब देंहटाएं