कहते हैं,
मनुष्य योनी,
श्रेष्ठ कहलाती है,
तभी तो, पतन की ओर,
उन्मुख होती चली जाती है,
श्रेष्ठता की
चरम सीमा,
मनुष्य,
जीव जन्तुओं का बना रहा है,
कीमा,
हे जीव-जन्तुओ!
तुम अपने राजा से
परिवाद क्यों नही करते?
न्याय की,
गुहार क्यों नही करते?
तभी इन निरीह जीवों की,
आवाज आती है,
जो,
हृदय को हिला जाती है,
हमारी,
शिकायत सुनेगा कौन?
अन्धेर नगरी में,
सभी तो हैं मौन,
हमारा तो,
अहित ही अहित है,
क्योंकि,
हमारा राजा भी तो,
हमीं को खाकर जीवित है।
सच्ची और धारदार रचना। वाह।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत उम्दा रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
bahut gahri rachna..........ek katu satya.
जवाब देंहटाएंक्योंकि, हमारा राजा भी तो, हमीं को खाकर जीवित है... शानदार कथ्य..बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंईश्वर (प्रकृति) के नियमों के आगे मनुष्य का वश नहीं चलता है!
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