इश्क का यह भूत, हर दिल में मचलता है।
गन्ध से अपनी सुमन, दुनिया को छलता है।
रात हो, दिन हो, उजाला या अन्धेरा हो,
पुष्प के सौन्दर्य पर, षटपद मचलता है।
गन्ध से अपनी सुमन, दुनिया को छलता है।।
जेठ की दोपहर हो या माघ की शीतल पवन,
प्रेम का सूरज हृदय से ही निकलता है।
गन्ध से अपनी सुमन, दुनिया को छलता है।।
रास्ते होगें अलग, पर मंजिलें तो एक हैं,
लक्ष्य पाने को बशर राहो पे चलता है।
गन्ध से अपनी सुमन, दुनिया को छलता है।।
आँधियाँ हरगिज बुझा सकती नही नन्हा दिया,
प्यार का दीपक, हवा में तेज जलता है।
गन्ध से अपनी सुमन, दुनिया को छलता है।।
बहुत उमंग भरी रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सुन्दर बढ़िया लगी आपकी यह रचना
जवाब देंहटाएंइश्क का यह भूत, हर दिल में मचलता है।
जवाब देंहटाएंसरजी,
आपने बहुत ही सुन्दर रचना से हमे रुबरु कराया- आभार।
मुम्बई टाईगर,
हे प्रभु तेरापथ,
waah waah waah waah
जवाब देंहटाएंkya khun shastri ji.....badi hi dil ko choo lene wali rachna likhi hai .
अच्छा गीत है
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शास्त्री जी अपना हेडर सही करने के लिए यह पोस्ट अवश्यक पढ़े