मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।
घर के आगे पेड़ नीम का,
वैद्यराज सा खड़ा हुआ है।
माता जैसी गौमाता का,
खूँटा अब भी गड़ा हुआ है।
टेसू के फूलों से गुंथित,
तीनपात की हर डाली है।
घर के पीछे हरियाली है,
लगता मानो खुशहाली है।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।
पीपल के नीचे देवालय,
जिसमें घण्टे सजे हुए हैं।
सांझ-सवेरे भजन-कीर्तन,
ढोल-मंजीरे बजे हुए हैं।
कहीं अजान सुनाई देती,
गुरू-वाणी का पाठ कहीं है।
प्रेम और सौहार्द परस्पर,
वैर-भाव का नाम नही है।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।
विद्यालय में सबसे पहले,
ईश्वर का आराधन होता।
देश-प्रेम का गायन होता,
तन और मन का शोधन होता।
भेद-भाव और छुआ-छूत का,
सारा मैल हटाया जाता।
गणित और विज्ञान साथ में,
पर्यावरण पढ़ाया जाता।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।
रोज शाम को दंगल-कुश्ती,
और कबड्डी खेली जाती।
योगासन के साथ-साथ ही,
दण्ड-बैठकें पेली जाती।
मैंने पूछा परमेश्वर से,
जन्नत की दुनिया दिखला दो।
चैन और आराम जहाँ हो,
मुझको वह सीढ़ी बतला दो।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।
तभी गगन से दिया सुनाई,
तुम जन्नत में ही हो भाई।
मेरा वास इसी धरती पर,
जिसकी तुमने गाथा गाई।
तभी खुल गयी मेरी आँखें,
चारपाई दे रही गवाही।
सुखद-स्वप्न इतिहास बन गया,
छोड़ गया धुंधली परछाई।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अब तो बस अञ्जानापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
बसा हुआ दीवानापन है।।
कितना बदल गया है भारत,
कितने बदल गये हैं बन्दे।
मानव बन बैठे हैं दानव,
तन के उजले, मन के गन्दे।
वीर भगत सिंह के आने की,
अब तो आशा टूट गयी है।
गांधी अब अवतार धरेंगे,
अब अभिलाषा छूट गयी है।
सन्नाटा फैला आँगन में
आसमान में सूनापन है।
चारों तरफ प्रदूषण फैला,
व्यथित हो रहा मेरा मन है।।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।
शास्त्री जी,
जवाब देंहटाएंकितने सरल शब्दों में आपने
व्यंजना और व्याज स्तुति के
सहारे गाँव की ज़मीनी सच्चाई का
खाका खींच दिया....आभार.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
गाँव के चित्र दिखानेवाले
जवाब देंहटाएंप्रारंभिक पद मन को भा गए!
बहुत मार्मिक वर्णन किया गया है!
शास्त्री जी!
जवाब देंहटाएंआपने अपनी यह कविता पढ़वा
कर तो दिल खुश कर दिया।
सीधे-साधे लब्जों में बेहतरीन शायरी।
मुबारकवाद।
ग्रामीण जीवन का
जवाब देंहटाएंसरल शब्दों में
सुन्दर चित्रण।
बधाई।
मयंक जी!
जवाब देंहटाएंआपके पास भावनाओं
और साहित्य का सागर है।
लिखते रहें।
मेरी शुभकामनाएँ स्वीकार करें।
सुन्दर गीत,
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव और
सुन्दर चित्र।
आभार.
आप ब्लाग-जगत पर छा गये हो।
जवाब देंहटाएंमंगल कामनाएँ।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
जवाब देंहटाएंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।
घर के आगे पेड़ नीम का,
वैद्यराज सा खड़ा हुआ है।
माता जैसी गौमाता का,
खूँटा अब भी गड़ा हुआ है।
टेसू के फूलों से गुंथित,
तीनपात की हर डाली है।
घर के पीछे हरियाली है,
लगता मानो खुशहाली है।
ये पंक्तियाँ दिल को छू गयीं
बधाई।
लाजवाब रचना के लिए,
जवाब देंहटाएंबधाई।
पीपल के नीचे देवालय,
जवाब देंहटाएंजिसमें घण्टे सजे हुए हैं।
सांझ-सवेरे भजन-कीर्तन,
ढोल-मंजीरे बजे हुए हैं।
कहीं अजान सुनाई देती,
गुरू-वाणी का पाठ कहीं है।
प्रेम और सौहार्द परस्पर,
वैर-भाव का नाम नही है।
अच्छी रचना पढ़वाने के लिए,
धन्यवाद!
शास्त्री जी, बहुत सुन्दर रचना है.
जवाब देंहटाएंआपके गाँव आज पहली बार आया हूँ शास्त्री जी....आपने जो कुछ भी लिखा है....यदि यह सच है तो आपके गाँव को देखने की इच्छा....आपके गाँव में रहने की इच्छा मन में बड़ी तीव्रता से कुलबुलाने लगी है.....सच आपका गाँव बड़ा प्यारा लगा.....!!
जवाब देंहटाएंमयंक जी।
जवाब देंहटाएंआपकी रचना मर्म-स्पर्शी है।
गाँव के परिवेश का सजीव चित्रण है।
इसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं।
गांव मे बीता बचपन याद आगया.
जवाब देंहटाएंरामराम.