और चाय वाले भट्ट जी, पीछे-बीस वर्ष पूर्व का खटीमा बस स्टेशन। बाबा नागार्जुन की तो इतनी स्मृतियाँ मेरे मन व मस्तिष्क में भरी पड़ी हैं कि एक संस्मरण लिखता हूँ तो दूसरा याद हो आता है। मेरे व वाचस्पति जी के एक चाटुकार मित्र थे। जो वैद्य जी के नाम से मशहूर थे। वे अपने नाम के आगे ‘निराश’ लिखते थे। अच्छे शायर माने जाते थे। आजकल तो दिवंगत हैं। परन्तु धोखा-धड़ी और झूठ का व्यापार इतनी सफाई व सहजता से करते थे कि पहली बार में तो कितना ही चतुर व्यक्ति क्यों न हो उनके जाल में फँस ही जाता था। उन दिनों बाबा का प्रवास खटीमा में ही था। वाचस्पति जी हिन्दी के प्राध्यापक थे। इसलिए विभिन्न कालेजों की हिन्दी विषय की कापी उनके पास मूल्यांकन के लिए आती थीं। उन दिनों चाँदपुर के कालेज की कापियाँ उनके पास आयी हुईं थी। तभी की बात है कि दिन में लगभग 2 बजे एक सज्जन वाचस्पति जी का घर पूछ रहे थे। उन्हें वैद्य जी टकरा गये। और राजीव बर्तन स्टोर पर बैठ कर उससे बातें करने लगे। बातों-बातों में यह निष्कर्ष निकला कि उनके पुत्र का हिन्दी का प्रश्नपत्र अच्छा नही गया था। इसलिए वो उसके नम्बर बढ़वाने के लिए किन्ही वाचस्पति प्रोफेसर के यहाँ आये हैं। वैद्य जी ने छूटते ही कहा- "प्रोफेसर वाचस्पति तो मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं। लेकिन वो एक नम्बर बढ़ाने के एक सौ रुपये लेते हैं। आपको जितने नम्बर बढ़वाने हों हिसाब लगा कर उतने रुपये दे दीजिए।" बर्तन वाला राजीव यह सब सुन रहा था। उसकी दूकान के ऊपर ही वाचस्पति जी का निवास था और वह उनका भक्त था। राजीव चुपके से अपनी दूकान से उठा और वाचस्पति जी से जाकर बोला- ‘‘सर जी! आप भी 100 रु0 नम्बर के हिसाब से ही परीक्षा में नम्बर बढ़ा देते हैं क्या?’’ और उसने अपनी दुकान पर हुई पूरी घटना बता दी। वाचस्पति जी ने राजीव से कहा- "जब वैद्य जी! चाँदपुर से आये व्यक्ति का पीछा छोढ़ दें, तो उस व्यक्ति को मेरे पास बुला लाना।" इधर बैद्य जी ने 10 अंक बढ़वाने के लिए चाँदपुर वाले व्यक्ति से एक हजार रुपये ऐंठ लिए थे। बाबा नागार्जुन भी राजीव और वाचस्पति जी की बातें ध्यान से सुन रहे थे। थोड़ी ही देर में वैद्य जी वाचस्पति जी के घर आ धमके। इसी की आशा हम लोग कर रहे थे। पहले तो औपचारिकता की बातें होती रहीं। फिर वैद्य जी असली मुद्दे पर आ गये। वाचस्पति जी ने कहा- ‘‘वैद्य जी मैं यह व्यापार नही करता हूँ।’’ तब तक राजीव चाँदपुर वाले व्यक्ति को भी लेकर आ गया। हम लोग तो वैद्य जी से कुछ बोले नही। परन्तु बाबा नागार्जुन ने वैद्य जी की क्लास लेनी शुरू कर दी। सभ्यता के दायरे में जो कुछ भी कहा जा सकता था बाबा ने खरी-खोटी के रूप में वो सब कुछ वैद्य जी को सुनाया। अब बाबा ने चाँदपुर वाले व्यक्ति से पूछा- ‘‘आपसे इस दुष्ट ने कुछ लिया तो नही है।’’ तब 1000 रुपये वाली बात सामने आयी। बाबा ने जब तक उस व्यक्ति के रुपये वैद्य जी से वापिस नही करवा दिये तब तक वैद्य जी का पीछा नही छोड़ा। बाबा ने उनसे कहा- ‘‘वैद्य जी अब तो यह आभास हो रहा है कि तुम जो कविताएँ सुनाते हो वह भी कहीं से पार की हुईं ही होंगी। साथ ही वैद्य जी को हिदायत देते हुए कहा कि "अच्छा साहित्यकार बनने से पहले अच्छा व्यक्ति बनना बहुत जरूरी है।" |
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शुक्रवार, 27 मार्च 2009
‘‘अच्छा साहित्यकार बनने से पहले अच्छा व्यक्ति बनना बहुत जरूरी है’’-बाबा नागार्जुन। (डा. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
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जो अच्छा नहीं वह अच्छी रचना कैसे कर सकता है?
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी!
जवाब देंहटाएंआपने जिस व्यक्ति का जिक्र किया है। वो मुझे भी ठग चुका है।
संस्मरण अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंबधाई।
मयंक जी।
जवाब देंहटाएंआपने बाबा के संस्मरण में इस ठग
को भी अमर कर दिया।
संस्मरण की श्रंखला रोचक भी है
जवाब देंहटाएंऔर प्रेरणादायक भी।
लिखते रहें।
शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंहम आपके संस्मरण पढ़ने की
इन्तजार करते हैं।
रोचक संस्मरण के लिए
जवाब देंहटाएंबधाई।
बाबा की महानता का
जवाब देंहटाएंएक और संस्मरण पढ़ा।
बधाई।
आदरणीय शास्त्री जी ,
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार .
आपका बाबा नागार्जुन जी के साथ के संस्मरणों को प्रस्तुत करने का ढंग ,शैली बहुत रोचक है
आपके द्वारा मेरे ब्लॉग पर की गयी टिप्पणियां मेरा उत्साह बढाती हैं . कहानी मेरी बेटी नेहा ने लिखी है .उसे भी आपकी टिप्पणी से काफी उत्साह मिला है .हार्दिक शुभकामनाओं के साथ .
पूनम
शास्त्री जी,
जवाब देंहटाएंबाबा नागार्जुन के बारे में अब तक जितना जाना है उसके कारण उनके प्रति पहले ही बहुत आदर है. आपके संस्मरणों से वह बढ़ता ही जा रहा है. धन्यवाद!
"अच्छा साहित्यकार बनने से पहले अच्छा व्यक्ति बनना बहुत जरूरी है।"
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही सलाह दी बाबा ने.
मजा आ रहा है नागार्जुन के निजी पलों और व्यक्तित्वा के उन पहलुओं के बारे में जानकर जो किताबों में नहीं मिलते.
जवाब देंहटाएं