चाल-बाजी की भी सीमाएँ होती हैं। परन्तु मेरा वास्ता एक ऐसे चालबाज से पड़ा था। जिसने जाल-साजी की सभी हदें पार कर ली थी।
मेरे एक कवि मित्र थे-श्रीमान वैद्य जी! उनका पूरा नाम लिखना तो इस स्वर्गवासी की आत्मा को ठेस पहुँचाना ही होगा। इसलिए सिर्फ वैद्य जी के नाम से ही काम चला लेता हूँ। ये महाशय जाल-साजी की एक जीती-जागती मिसाल थे।
वाकया 1987-88 का है। उन दिनों उ0प्र0 में कांग्रेस का शासन था। पं0 नारायण दत्त तिवारी उन दिनो यहाँ के मुख्यमन्त्री हुआ करते थे। जो मुझे बहुत पसन्द करते थे।
वैद्य जी भी कांग्रेस के नेता अपने आप को कहते थे। और पं0 नाराणदत्त तिवारी जी को अपना कथित लंगोटिया यार कहते थे। क्योंकि ये अपनी डींग मारने में नम्बर एक के थे। इसलिए लोगों ने इनकी बात को कुछ हद तक सही भी मान लिया था।
किस्मत की बात कि कुछ शिक्षित बे-रोजगारों को नौकरी दिलाने के लिए इन्होंने अपने जाल में फाँस लिया था। जिनकी संख्या दस थी।
हर एक से इन्होंने पाँच-पाँच हजार रुपये ऐंठ लिये थे। उन दिनों पचास हजार रुपये एक अच्छी-खासी मोटी रकम मानी जाती थी।
अब ठगे गये व्यक्तियों को इनके घर के चक्कर तो लगाने ही थे। इनका कोई घर द्वार तो था ही नही। एक कमरे को किराये पर ले रखा था। उसी में अपनी धर्मपत्नी के साथ रहते थे। कविता सुनाने के बहाने से अक्सर मेरे पास बैठे रहते थे।
तभी कुछ लोग इनको ढूंढते हुए खटीमा आ गये।
इनका पता पूछा तो लोगों ने बताया- ‘‘वो शास्त्री जी के पास ज्यादातर बैठते हैं।’’
अतः वे लोग मेरे घर ही आ गये। वैद्य जी भी मेरे पास ही बैठे थे। वे यहीं पर उनसे बात करने लगे। वैद्य जी उनको पहाड़ा पढ़ाते रहे।
उनमें से एक व्यक्ति ने पूछा- ‘‘वैद्य जी आपका घर कौन सा है?’’
वैद्य जी ने उत्तर दिया- ‘‘यही तो मेरा घर है। ये मेरे छोटे भाई हैं। इनके पिता जी वो जो चारपाई पर बैठे हैं। मेरे चाचा जी हैं।’’
वैद्य जी की बात सुन कर, अब मेरे चौंकने की बारी थी।
उस समय बाबा नागार्जुन तो मेरे पास नही थे। जो इनको खरी खोटी सुनाते।
हाँ, मेरी माता जी यह सब सुन रही थीं।
वे उठ कर आयीं और वैद्य जी का हाथ पकड़ कर कहा- ‘‘वैद्य के बच्चे! उठ तो सही यहाँ से। तेरे कौन से बाप ने ये घर बनाया है? न जात न बिरादरी, बड़ा आया अपना घर बताने।’’
अब तो वैद्य जी की की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी।
वो अपने इन लोगों को लेकर चुपचाप उठ गये और कहने लगे- ‘‘चाची जी का स्वभाव तेज है, आओ- बाहर चल कर बाते करते हैं।’’
शेष अगली कड़ी में-..............................।
कुछ लोग सहिष्णुता का नाजायज फ़ायदा ऊठाते हैं और दूसरों को भी परेशानी में डाल देते हैं. अगली कडी का इंतजार है...
जवाब देंहटाएंरामराम.
शास्त्री जी!
जवाब देंहटाएंमैं समझ गया आपने किस ठग का
संस्मरण लिखा है।
इनकी कुछ यादें मेरे मन भी हैं।
संस्मरण अच्छा है।
बधाई।
आपके संस्मरण के पात्र
जवाब देंहटाएंवैद्य जी में आज के राजनेता के सभी गुण हैं।
संस्मरण से यह शिक्षा मिलती है कि
जवाब देंहटाएंऐसे लोगों से सावधान रहने में ही भलाई है।
खटीमा के वैद्य जी को आपने
जवाब देंहटाएंअमर कर दिया।
बधाई हो।
रोचक संस्मरण के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंमैं भी जानना चाहती हूँ उनका नाम
जवाब देंहटाएंरोचक लगा यह .ऐसे लोगों की आज भी कमी नहीं है
जवाब देंहटाएंसंस्मरण प्रेरणादायकों के हों तो रुचते हैं।
जवाब देंहटाएंबीती ताही बिसार दे।
ye duniya aisi hi hai...........sabak sikhana hi padta hai nhi to aapke kandhe par banduk rakhkar goli dag deti hai.
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