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रविवार, 8 फ़रवरी 2009
वाह! क्या सीन है? (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
(1)
कल तक आदमी,
चेहरे बदलता था।
दुनिया के साथ-साथ,
स्वयं को भी छलता था।
सोचता था,
दर्पण को भी छल लूँगा,
बोला-
मैं खुद अपना चेहरा बदल लूँगा।
क्या ईमान और क्या दीन है?
वाह क्या सीन है?
(2)
कल तक,
माखन चुराता था कन्हैया।
लेकिन,
आज का गोपाल भैया।
अश्लील-गीत,
गाता जा रहा है।
जाम पर जाम,
पीता जा रहा है।
क्या नौजवान संवेदनहीन है?
वाह क्या सीन है?
(3)
कल तक,
खोजता इन्सान था,
भगवान को।
परन्तु,
आज भगवान ही खोजता,
इन्सान को।
क्यों?
क्या जानता नही,भगवान?
आदमी तो बहुत है,
लेकिन,
थोड़े बचे इन्सान।
मालिक ! कौन सी धुन में तल्लीन है?
वाह क्या सीन है?
(4)
कल तक,
मंजिल को-
ढूँढता था मुसाफिर।
किन्तु,
वक्त हो गया है,
कितना काफिर ?
अब मंजिल खोजती है-
एक अदद मुसाफिर।
परिणाम है,
मात्र सिफर।
क्या मंजिल,
इतनी लाचार और क्षीण है?
वाह क्या सीन है?
(5)
कल तक,
रिश्वत खोजती थी कानून को।
परन्तु आज अन्याय,
बिना डकार लिए-
पीता है-न्याय के खून को।
साहब की कुर्सी जहाँ आसीन है।
पेशकार की मेज के नीचे-
वाह क्या सीन है.............
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खट्टा-मीठा,
जवाब देंहटाएंकड़वा भी है,
कुछ तीखा नमकीन है!
आपका हर सीन हसीन है!
सचमुच,
वाह क्या सीन है!
*ब्लाग पर आपकी सक्रियता देखकर मुझ आलसी को प्रेरणा मिलती है .
जवाब देंहटाएं**वाह! क्या ब्लाग है !!