"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009
स्वागत नव-वर्ष
नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे । नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे ।
कुछ ने मँहगाई फैलादी, कुछ हैं मँहगाई के मारे ।।
काँपे माता काँपे बिटिया, भरपेट न जिनको भोजन है ।
क्या सरोकार उनको इससे क्या नूतन और पुरातन है ।
सर्दी में फटे वसन फटे सारे । नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे।।
जो इठलाते हैं दौलत पर, वो खूब मनाते नया-साल ।
जो करते श्रम का शीलभंग,वो खूब कमाते द्रव्य-माल ।
वाणी में केवल हैं नारे । नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे ।।
नव-वर्ष निरन्तर आता है,सुख के निर्झर अब तक न बहे।
सम्पदा न लेती अंगड़ाई, कितने ही दारुण-दुख-दर्द सहे ।।
मक्कारों के वारे-न्यारे । नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे ।।
रोटी-रोजी के संकट में, नही गीत-प्रीत के भाते हैं ।
कहने को अपने सारे हैं, पर झूठे रिश्ते-नाते हैं ।।
सब स्वप्न हो गये अंगारे, नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे ।।
टूटा तन मन भी टूटा है, अभिलाषाएँ ही जिन्दा हैं ।
आयेगीं जीवन में बहार, यह सोच रहा कारिन्दा हैं ।।
अब चमकेंगेें अपने तारे, नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे ।।
प्रजापति डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
पूर्वसदस्य-उत्तराखण्ड अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,देहरादून। कैम्प-खटीमा, जिला-ऊधमसिंहनगर
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
-
सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथासम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।