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बुधवार, 11 फ़रवरी 2009
बरसो बादल! (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बरसी न अभी जी भर बदली।
मुस्कान सघन-घन दे न सके,
मुरझाई आशाओं की कली।
प्यासा चातक, प्यासी धरती,
प्यास लिए, अब फसल चली।
प्यासी निशा - दिवस प्यासे,
प्यासी हर सुबह-औ-शाम ढली।
वन, बाग, तड़ाग, सुमन प्यासे,
प्यासी ऋषियों की वनस्थली।
खग, मृग, वानर, जलचर प्यासे,
प्यासी पर्वत की तपस्थली।
सूखा क्यों जलद तुम्हारा उर,
मानव मन की मनुहार सुनो।
इतने न बनो घनश्याम निठुर,
चातक की करुण पुकार सुनो।
फिर आओ गगन तले बादल,
अब तो मन-तन जी-भर बरसो।
विरहिन की ज्वाल, करो शीतल,
जाना अपने घर, कल - परसो।
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महराज हमारा आवास जमुना जी के किनारे है. बाढ न आए, बस इतना ख़याल रखें बादल लोग, ये ज़रा हमारी तरफ़ से कह दीजिएगा.
जवाब देंहटाएंHow to sent comments in hindi please how
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी रचना ...पर बादल वहीँ अपना असर दिखायें जहाँ जरूरत है ...नाकि बिहार जैसी जगह जहाँ पहले से ही त्राहि माम त्राहि माम मचा हुआ है ....
जवाब देंहटाएंअनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
प्रियवर इन्द्र देव सांकृत्यायन जी।
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी पढ़कर अच्छा लगा-
बादल बरसो देश-देश में, मत जाना जमुना के जीर।
वहाँ बसते हैं इन्द्र देव जी, बरसा लेंगे निर्मल नीर।।
फिर आओ गगन तले बादल,
जवाब देंहटाएंअब तो मन-तन जी-भर बरसो।
विरहिन की ज्वाल, करो शीतल,
जाना अपने घर, कल - परसो।
waah sundar bhav sundar shabd sundar kavita
प्रियवर इष्टदेव सांकृत्यायन जी।
जवाब देंहटाएंपिछली टिप्पणी में आपका नाम भूलवश् इन्द्र देव लिख गया था। आपका ब्लॉग देखा तो भूल का आभास हुआ। इसके लिए तो बस क्षमा ही माँगना उपयुक्त होगा। सही टिप्पणी निम्नवत् है-
बादल बरसो देश-देश में, मत जाना जमुना के तीर।
वहाँ बसते हैं इष्टदेव जी, बरसा लेंगे इच्छित नीर।।
आपकी टिप्पणी पढ़कर अच्छा लगा-
यहां मैं अपनी कविता “सावन और प्रियतम” की चंद पक्तियां जो “पतझड सावन वंसत बहार” सकंलन में प्रकाशित हो चुकी है को उद्धत करने की अनुमति चाहता हूं जो आपकी कविता से काफी समानता लिए हुए है:-
जवाब देंहटाएंजब बेसुध सोती जमीन पर
गिरे सावन की पहली बूंद
अलसाई, बलखाई भूमि आंखें खोले
देखे अचरज से बादल की ओर
कब तक तुम्हारी राह तकी
पर तुम न आए
नीर बहे इन आखों से
पर तुम न आए
.......
.......
.......
.......
तुम्हारे स्पर्शों की इन बूंदों ने
खोले हैं जीवन के द्वार
तुम्हारे स्पर्शों की इन सौगातों ने
भुला दिया है विरह का उदगार
प्रणय आग्रह को तुम्हारे मैं स्वीकारुं
अब तुम खूब बरसो नाथ
जनम जनम की प्यास मिटा दो
ऐसे बरसो मेरे नाथ।
अति सुन्दर!
जवाब देंहटाएं---
गुलाबी कोंपलें
मौसा जी आपकी कलम के बारे में पता नही था की आप इतना अच्छा लिखते हो. बहुत ही अच्छी कविता है
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