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शनिवार, 14 फ़रवरी 2009
कामुकता में वह छला गया। (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
अरुणोदय होने वाला था।
कली-कली पर झूम रहा,
एक चंचरीक मतवाला था।।
गुंजन कर रहा, प्रतीक्षा में,
कब पुष्प बने कोई कलिका।
मकरन्द-पान को मचल रहा,
मन मोर नाच करता अलि का।।
लाल-कपोल, लोल-लोचन,
अधरों पर मृदु मुस्कान लिए।
उपवन में एक कली आयी,
सुन्दरता का वरदान लिए।।
देख अधखिली सुन्दर कलिका,
भँवरे के मन में आस पली।
और अधर-कपोल चूमने को,
षट्पद के मन में प्यास पली।।
बस रूप सरोवर में देखा,
और मुँह में पानी भर आया।
प्रतिछाया को समझा असली,
और मन ही मन में ललचाया।।
आशा-विश्वास लिए पँहुचा,
अधरों से अधर मिला बैठा।
पर भीग गया लाचार हुआ,
जल के भीतर वह जा पैंठा।।
सत्यता समझ ली परछाई,
कामुकता में वह छला गया।
नही प्यास बुझी उस भँवरे की,
इस दुनिया से वह चला गया।।
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बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंप्रेरक
भाव पूर्ण रचना.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
sunder rachna.
जवाब देंहटाएंच्च-च्च...भला वैलेंटाइन डे के दिन कहीं ऐसी बात की जाती है शास्त्री जी!
जवाब देंहटाएंकामुकता चीज़ ही ऐसी है!
जवाब देंहटाएंbahut sunder bhaw hai gurudev...
जवाब देंहटाएंmae to aapko guru hi kahunga aur aapka ashriwaad roopi haath apne sar par chahta hun
चलिये जो हुआ सो हुआ......... बहरहाल अच्छी रचना के लिये बधाई....
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