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गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009
आशा की एक किरण अब भी बाकी है........ (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक)
एक दिन कुछ फर्नीचर बनवाने के लिए बढ़ई लगाया तो मुझे कबूतरों की याद आ गयी। मैंने बढ़ई से उनके लिए दो पेटी बनवा ली और किसी तरह से उनको रोशनदान में रखवा दिया।
अब कबूतर उसमें बैठने लगे। नया घर पाकर वो बहुत खुश लगते थे। धीरे-धीरे कबूतर-कबूतरी ने पेटी में तिनके जमा करने शुरू कर दिये। थोड़े दिन बाद कबूतरी ने इस नये घर में ही अण्डे दिये। कबूतर और कबूतरी बारी-बारी से बड़े मनोयोग से उन्हें सेने लगे।
एक दिन पेटी में से चीं-चीं की आवाज सुनाई देने लगी। अण्डों में से बच्चे निकल आये थे। अब कबूतर और कबूतरी उनको चुग्गा खिलाने लगे। धीरे-धीरे बच्चों के पर भी निकलने शुरू हो गये थे। एक दिन मैंने देखा कि कबूतरों के बच्चे उड़ने लगे थे। जैसे ही उनके पूरे पंख विकसित हो गये वे घोंसला छोड़ कर पेटी से उड़ गये ।
आज भी यह क्रम नियमित रूप से चल रहा है। कबूतर अण्डे देते हैं। अण्डों में से छोटे-छोटे बच्चे निकलते हैं और पंख आने के बाद उड़ जाते हैं। क्या संसार की यही नियति है? बालक जवान होते ही माता-पिता को ऐसे छोड़ कर चले जाते हैं जैसे कि कभी उनसे कोई नाता ही न रहा हो और माता-पिता देखते रह जाते हैं।
वे पुनः घोंसले में अण्डे देते हैं। उन्हें इस उम्मीद से सेते हैं कि इनमें से निकलने वाले बच्चे बड़े होकर हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेंगे।
शायद उनके मन में आशा की एक किरण अब भी बाकी है........
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is aasha par to ye srishti chal rahi hai bahut sunder
जवाब देंहटाएंदुनियादारी का अच्दा चित्रण है।
जवाब देंहटाएंबधाई!
बच्चों से उम्मीद रखना व्यर्थ है। माता-पिता ही सदैव बच्चों का ख्याल रखते है और आगे भी रखते रहेंगे। यही जग की रीत है।
जवाब देंहटाएंप्रिय मयंक जी!
जवाब देंहटाएंपूरी दुनियाँ में यही तो हो रहा है। कोई भी इससे अछूता नही है।