पहले भी मैं भटक चुकी हूँ,
अब तक भटक रही हूँ मैं।
कब तलाश ये पूरी होगी,
अब तक अटक रही हूँ मैं।
ना जाने कितनों के मन में,
अब तक खटक रही हूँ मैं।
गुलशन के भँवरों में फँस कर,
अब तक लटक रही हूँ मैं।
यादें पीछा नही छोड़तीं,
अब तक चटक रही हूँ मैं।
जुल्फों में जो महक बसी थी,
अब तक झटक रही हूँ मैं।
बहुत बढिया!!
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता बन पड़ी है, क्या आप कवि हैं?
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चाँद, बादल और शाम
प्रिय विनय जी!
जवाब देंहटाएंतुलसी, सूर, कबीरा जैसा,
हो सकता नही साधक हूँ ।
कवि कैसे कहला सकता हूँ,
मैं माँ का आराधक हूँ।।
'यादें पीछा नही छोड़तीं,अब तक चटक रही हूँ मैं।'
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता है !
[Sir,आप ने मेरी रचना को पढ़ते पढ़ते टिप्पणी में लिख दी थी वहां देख कर बहुत सुखद आश्चर्य हुआ था.
आप को बहुत बहुत धन्यवाद.]
आपकी लिखी यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी थी ..
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर उत्तर!
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गुलाबी कोंपलें